Kamlesh Singh sacrificed himself for the country by being blown away in an explosion | धमाके में बिखरकर देश पर न्योछावर हो गए कमलेश सिंह: पिता ने जहां लड़ी 1965 की लड़ाई, वहीं शहीद हुआ बेटा – Virno(Ghazipur) News


मुकेश राजभर/संजना सिंह | बिरनो, गाजीपुर8 मिनट पहले

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“जिस जगह पर पिता जी ने 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उसी जगह टाइगर हिल पर भाई कमलेश को शहादत मिली। 7 जून को वह घर आने वाले थे, लेकिन 15 जून को वो तिरंगे में लिपटकर आए। ऑपरेशन के दौरान दुश्मन की तोप से दागे गए गोले ने उन्हें छलनी कर दिया था।”

यह बात कारगिल युद्ध में शहीद हुए कमलेश सिंह के भाई राम शब्द सिंह ने कही है। गाजीपुर के भैरोपुर गांव में जन्मे सेनानायक कमलेश सिंह शुरू से ही पिता की तरह फौज में जाना चाहते थे। 18 वर्ष की उम्र में सेना में भर्ती हुए। अपने 14 वर्षों की सेवा के दौरान कई चुनौतियों का सामना करते हुए अंततः कारगिल की रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए। कारगिल विजय दिवस के 26 साल बाद दैनिक भास्कर की टीम शहीद राजेंद्र यादव के गांव पहुंची। गांव में फिलहाल कोई नहीं रहता है। पूरा परिवार गाजीपुर शहर में शिफ्ट हो चुका है।

शहीद कमलेश सिंह का जन्म 15 मई 1967 को हुआ था। ये बचपन से ही फौज में जाना चाहते थे।

शहीद कमलेश सिंह का जन्म 15 मई 1967 को हुआ था। ये बचपन से ही फौज में जाना चाहते थे।

आइए जानते हैं कैसा रहा शहीद कमलेश सिंह का बचपन

सेनानायक कमलेश सिंह का जन्म 15 मई 1967 को हुआ था। वे चार भाइयों में दूसरे स्थान पर थे। उनके बड़े भाई राम शब्द सिंह और छोटे भाई राजेश सिंह व राकेश सिंह हैं। उनके पिता भारतीय सेना की राजपूत रेजिमेंट में 28 वर्षों तक सेवा देने के बाद वर्ष 1990 में मानद कैप्टन के पद से सेवानिवृत्त हुए।

कमलेश सिंह की प्रारंभिक शिक्षा केंद्रीय विद्यालय जामनगर (गुजरात) में हुई, जहां उनके पिता तैनात थे। इसके बाद उन्होंने बधुपुर से मिडिल स्कूल और शादियाबाद के नेहरू इंटर कॉलेज से हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी की। 31 जुलाई 1985 को बनारस भर्ती कार्यालय से उनका चयन हुआ। 13 मई 1989 को उनका विवाह गाजीपुर के माहेपुर गांव निवासी श्री लाल बहादुर सिंह की पुत्री रंजना देवी से हुआ। अप्रैल 1999 में उनकी तैनाती भटिंडा स्थित 547 एफआरआई (रेकी एंड एसपी) यूनिट में हुई थी।

15 जून 1999 को दुश्मन की ओर से दागे गए गोले से घायल होकर कमलेश सिंह शहीद हो गए।

15 जून 1999 को दुश्मन की ओर से दागे गए गोले से घायल होकर कमलेश सिंह शहीद हो गए।

पढ़िए कमलेश सिंह ने कैसे लड़ी कारगिल की लड़ाई

शहीद कमलेश सिंह के भाई राम शब्द सिंह ने बताया, “जून 1999 की बात है, जब कारगिल युद्ध अपने चरम पर था। 7 जून 1999 की शाम को उनके यूनिट को कारगिल जाने को कहा गया। वहां उनको राजपुताना राइफल्स के साथ अटैच कर दिया गया। उनकी पोस्टिंग कारगिल युद्ध में रणनीतिक रूप से अहम टाइगर हिल की चोटी पर हुई थी। उनकी टीम पूरी ताकत से दुश्मनों से लड़ती रही। इसी ऑपरेशन के दौरान 15 जून 1999 की सुबह दुश्मन की ओर से दागा गया एक गोला कमलेश सिंह के बेहद पास आ गिरा। उसी दिन वो मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए।”

शहीद कमलेश सिंह को मरणोपरांत सेना मेडल से नवाजा गया था। सेना मेडल को स्वीकार करतीं उनकी पत्नी रंजना देवी।

शहीद कमलेश सिंह को मरणोपरांत सेना मेडल से नवाजा गया था। सेना मेडल को स्वीकार करतीं उनकी पत्नी रंजना देवी।

सेना मेडल से किया सम्मानित

शहीद कमलेश सिंह के भाई राम शब्द सिंह ने बताया, “पिताजी फौज में थे। 1965 में उन्होंने टाइगर हिल पर पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उसी जगह पर भाई कमलेश ने 15 जून 1999 को शहादत देकर जिले का नाम रोशन कर दिया।”

उन्होंने आगे बताया, “अंतिम संस्कार के वक्त उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया था। वाराणसी से गोरखा रेजिमेंट के लोग आए थे। उनकी वीरता, बहादुरी और अदम्य साहस के लिए भारत के तत्कलीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने भाई को मरणोपरांत सेना मेडल से नवाजा था।”

शहीद कमलेश सिंह की यह प्रतिमा बिरनो थाने के पास लगाई गई है।

शहीद कमलेश सिंह की यह प्रतिमा बिरनो थाने के पास लगाई गई है।

शहीद के नाम पर बनी गांव की सड़क

भाई राम शब्द सिंह ने बताया, “सरकार द्वारा पेट्रोल पंप दिया गया है। सरकार ने घर के लिए पैसा दिया। इसके अलावा बिरनो थाना के पास शहीद कमलेश सिंह की प्रतिमा लगाई गई और गांव को मुख्य सड़क से जोड़ने वाली रोड का नाम भी उनके सम्मान में रखा गया है।”

शहादत के बाद 16 जुलाई 1999 को कमलेश के पार्थिव शरीर को उनके गांव लाया गया था।

शहादत के बाद 16 जुलाई 1999 को कमलेश के पार्थिव शरीर को उनके गांव लाया गया था।

7 जून को घर आना था, 15 को तिरंगे में लौटे

कमलेश सिंह की शहादत के बाद से पत्नी रंजना देवी अपने मायके में रह रही हैं। उन्होंने शहीद कमलेश सिंह से हुई अंंतिम बात को याद करते हुए बताया, “7 जून 1999 को वह छुट्टी पर घर आने वाले थे, लेकिन एक दिन पहले, 6 जून को फोन आया। फोन पर हुई बात के दौरान उन्होंने कहा कि भटिंडा जा रहे हैं और वहां से सीधे कारगिल चले जाएंगे। फिर कभी लौटे ही नहीं। 15 जून को उनकी शहादत की खबर आई। वो आखिरी बात ही हमारी आखिरी याद बन गई।”



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